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Maqsood Alam
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प्रशासन की सख्ती और उद्यमियों की कागजी कमजोरी के बीच पिस गए मजदूर

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Gunjan Saha
(Desk Head)
कृपा सिंधु बच्चन@समाचार चक्र
कृपा सिंधु बच्चन@समाचार चक्र

पाकुड़ । “बहुत दिनों से मैं ये सुन रहा था, कि सज़ा वो देते हैं हर इक ख़ता की, मुझे तो इसकी सज़ा मिली है, कि मेरी कोई ख़ता नहीं है।”

पत्थर उद्योग से जुड़े मजदूरों की स्थिति इन दिनों मानो खमोशी से इन्हीं पंक्तियों में अपनी बात कह रही हों। पाकुड़ के पत्थर उद्योग को एशिया प्रसिद्ध बनाने वाले यहां के मजदूरों के आंगन की रसोई इन दिनों ठंडी पड़ी है। कारण है, प्रशासन का सख्त होना और उद्यमियों का कानून गलत और कागजी प्रक्रियाओं में कमज़ोर रहना।

आदतन लंबे समय से कानून को ताख पर रख, पर्यावरण सहित कई कानूनों को धता बताते हुए यहां पत्थर उद्योग चलता रहा है। लेकिन अवैध खनन और परिवहन पर पिछले दिनों से स्थानीय प्रशासन का सख्त हो जाना, धड़ाधड़ छापे और विभिन्न तरह की कार्रवाइयां होने से इस पर प्रभाव पड़ा है। उद्योग जो गलत ढंग से चल रहे थे, वो बंद हो रहे हैं तथा मजदूर और उनकी रसोई पर इसका प्रभाव पड़ा है।

सवाल उठता है कि पहले प्रशासन ने इस अवैध को अनदेखा कर गलत की परम्परा को बढ़ने फलने फूलने क्यूं दिया? अब ऐसी क्या मजबूरी है कि मजदूरों की रसोई और बेरोजगारी की कीमत पर प्रशासन सख्त और उद्यमी खामोश हैं। पहले उद्योगपतियों ने वैध की आड़ में अवैध के रास्ते इतनी चांदी काटी है कि पूरा पत्थर उद्योग बुरी तरह बदनाम हुआ। जब कभी प्रशासन स्थानीय तौर पर सख्त हुआ, राजनीति के गलियारों तक पहुंच वाले चांदी कटने वालों ने अंधाधुंध चांदी के जूते चलाकर स्थानांतरण स्थानांतरण के खेल खेले और सख्ती करने वाले अधिकारी नप गए। मजबूरन अधिकारियों ने भी अनदेखी-अनदेखी के खेल खेले और चांदी काटने वाले उद्योग से हर स्तर पर लोगों ने चांदी काटी और इतनी काटी कि केंद्रीय जांच एजेंसियों तक इसकी महक पहुंच गई और फिर पूजा सिंघल और ED का खेल शुरू हो गया।

रांची के बड़े गलियारों से जब ED की धमक जिलों की गलियों तक पड़ने लगी, तो स्वाभाविक तौर पर कोई जिला स्तर पर समझौता वादी बन नहीं रहा। पूजा सिंघल पर करवाई ने राजनीति की गलियों पर भी कीचड़ छींटकाएं। नतीजन जिला स्तरीय अधिकारियों में भी सहमी राजनैतिक गलियारों की परवाह किए बिना कार्रवाइयां शुरू की। राजधानी में ED की धमक और बड़ी करवाई से चांदी काटने वालों के दांत की धार कुंद पड़ गई। नतीजतन अधिकारियों में ट्रांसफर का भय जाता रहा और कानून के डंडे बरसते गए।

प्रशासन की कार्रवाईयों से उद्योग के शोर और क्रशर के फीते तो रुक गए, लेकिन अरबों की चांदी काट चुके उद्यमियों पर इसका सीधे प्रभाव न पड़, बेचारे मजदूर पिस गए। कुल मिलाकर मजदूर जो सीधे पत्थर उद्योग से जुड़े थे, और जो परोक्ष रूप से जुड़े थे, वे प्रभावित हुए।

परिवहन के ट्रकों के चक्के रुके तो गराज वाले, पम्पचर वाले, लोडिंग अनलोडिंग मजदूर, होटल, चाय की दुकानें सभी जगह एक मातमनुमा खामोशी नजर आने लगी। फिलवक्त कानून के डंडे सख्त, अवैध खनन माफिया फरार और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पत्थर उद्योग से जुड़े मजदूर गमगीन नजर आ रहे हैं। जनप्रतिनिधियों और सरकार को नियमों को सुलभ तथा कागजी कार्रवाइयों एक ही जगह पूरे करने के जुगाड़ के साथ पत्थर उद्योग को जीवनदान देकर मजदूरों के आंसू पोछ उनकी रसोई को पुनर्जीवित करने की जरुरत है।

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